सिकुड़े हाथ...सिकुड़े पैर...सिकुड़ा पेट...सिकुड़ा चेहरा.... यहां तक की सारा शरीर सिकुड़न से भरा हुआ है। ये सिकुड़न उसके शरीर में आई कहां से ये तो पता नहीं है लेकिन इस सिकुड़न के पीछे छिपा है एक दर्द....वो दर्द जो शायद ही कोई महसुस कर पाए....दर्द गरीबी का, दर्द भूखे होने का....दर्द मौत का....और ये है दर्द अकेलेपन का। इतना ही नहीं ये दर्द साफ नजर भी आता है....जिसे केवल हमने ही नहीं इसे आप भी पढ़ सकते है। कैसे ?....उसके आंखो से बहते हुए आंसुओ से...। जो ना चाहते हुए भी लोगों को बरबस अपनी ओर खिंचता है।
ये था ही ऐसा की हर कोई इससे रूबरु होना चाहेगा.......हांलाकि हमें इसके बारे में ज्यादा कुछ तो नहीं पता कि आखिर वो कहां से आया और कहां चला गया। लेकिन इतना पता है कि वो बेबस है....लाचार है.....सबके रहते हुए भी अकेला है। दुख बांटने वालों के होते हुए भी इसका दिल ग़म से भरा हुआ है.... अपनों के होते हुए भी सुनी राहों पर चलने को मजबुर है।
इसे देख कर सिर्फ हमारा ही ध्यान उस दिन रफ्तार भरी दुनिया से नहीं हटा.....बल्कि हमारे साथ हमारी जो हमारी रुम मेट थी उसका ध्यान भी उस की तरफ गया.....दराअसल वो था ही ऐसा....एक दिन हम लोग ऑफिस कि ओर ऑटो से आ रहे थे....हमेशा की तरह रेड लाइट पर हमारी ऑटो रुकी और हमेशा की तरह एक पांच साल के बच्चे की गोद में करीब एक या डेड़ साल का बच्चा हमारे पास कुछ पैसे मांगने के लिए आया। वो रो रहा था....बेबस लग रहा था....उसे देखकर एक बार तो हमारा दिल भी पसीज गया....लेकिन दूसरे पल ही हमने सोचा की इनका तो रोज का ये काम है.... क्योंकि वो सड़क के किनारे रहने वाले गुर्जर के बच्चे थे। जो हर रेड लाइट पर रुकने वाली गाड़ी से पैसे मांगते है। लेकिन उस छोटे बच्चे को देखकर शायद ही कोई हो जो ना पिघले...एक तो वो बेबस लग रहा था दूसरे उसके शरीर की सिकुड़न...जिसे देखकर हमें लगा कि...अरे ये बच्चा बचेगा भी या नहीं....या तो उसे मजबुरन मार के रुलाया गया था या वो इस तरह के कामों में ट्रेंड हो गया था। जो भी हो लेकिन वो था ही बहुत ही कमजोर....
अक्सर ये देखा और सुना गया है कि रेड लाइट पर भीख मांगने वाले लोग मजबुर कम और आदत से लाचार ज्यादा होते है....जो सब कुछ होते हुए भी आदतन भीख मांगते है....शहर में इनका एक बहुत बड़ा गिरोह है जो काफी सक्रिय है...और ये अब एक बिजनेस का रुप लेता जा रहा है...और ये बच्चे भी इस बिजनेस का एक हिस्सा या आप इसे मोहरा कह सकते है। जिनको हर तरह से हर परिस्थिति में भीख मांगने के लिए ट्रेंड किया जाता है। इसे आप स्लमडॉग फिल्म देख कर अच्छी तरह से समझ सकते है....
लेकिन कुछ भी हो....उस दिन से आज तक हमारी नजर उस बच्चे को तलाश कर रही है जो आज तक उस रेड लाइट पर हमें नहीं दिखा...डर लगता है कि कहीं उस बच्चे के साथ कुछ अनहोनी ना हो गई हो...या फिर कहीं वो बच्चा किसी और गिरोह का सदस्य ना बन गया हो.....
जो भी हो लेकिन वो जहां कहीं भी हो सही सलामत हो......हमारी यहीं छोटी सी ख्वाहीश है....
आप की इस लेख पर क्या राय है कृप्या करके जरूर अपनी राय दे...आप से नम्र आग्रह है...
Wednesday, December 9, 2009
Tuesday, August 25, 2009
ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की
नवभारत टाईम्स का ध्नयवाद
24 अगस्त को हमने नवभारत टाइम्स में एक लेख पढ़ा......लेख का नाम था अपनी मूर्ती। भई मान गए लेखक साहब को.....कितनी चतुराई से आपनी बात कह डाली और वो भी किसी को बदनाम किए बगैर। अगर आप इस लेख को पढ़ने से चुक गए तो....इस ब्लाग के जरिए पढ़ सकते है उस लेख को।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एक समय खूंटी डकैत के नाम से मशहूर जगन्नाथ बिंद अपने घर के सामने सीमेंट की बनी अपनी छह फुटी मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं। जगन्नाथ पर किसी जमाने में 32 मुकदमे थे, लेकिन एक अर्से से वे डकैती डालना छोड़ चुके हैं। अपनी इस पहल का मकसद वे भावी संततियों को बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश देना बताते हैं। दरअसल, यह उनका बड़प्पन है कि अपनी जमीन पर अपने पैसे से अपनी मूर्ति लगाने से पहले वे इसके लिए कोई वाजिब दलील खोजने की कोशिश कर रहे हैं। लोगबाग तो सार्वजनिक जमीनों पर सरकारी पैसों से अपनी मूर्तियां लगवाते चले जा रहे हैं और ऊपर से इसे जनता पर किया गया एहसान भी बता रहे हैं। साहिर लुधियानवी ने साठ के दशक के अपने एक चर्चित फिल्मी गीत में जगह-जगह गांधी की मूर्तियां लगाने के चलन की ओर इशारा करते हुए 'ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती' लिखा था।
अपने यहां जिंदा लोगों को कोई नहीं पूछता, हर कोई मुर्दों को ही पूजने में लगा रहता है। इधर उत्तर प्रदेश में यह परंपरा तोड़ने की शुरुआत हुई है। पूजना ही है तो जिंदा लोगों को पूजो। जातिगत स्वाभिमान के नाम पर पूजो, सामाजिक न्याय के नाम पर पूजो, दलित मुक्ति के नाम पर पूजो, चाहे जैसे भी पूजो, लेकिन पूजो। इस काम के लिए किसी के महान होने का इंतजार क्यों किया जाना चाहिए? और दिवंगत होने के बाद श्रद्धालुओं द्वारा अपनी मूर्ति बनाए जाने की तो कल्पना भी व्यर्थ है। लोग मरने के बाद आपके दर्शनों को आएं, इसका भला कोई औचित्य बनता है? जब दुनिया से चोला उठ गया तो लोग इसे पूजें चाहे पत्थर मारें, क्या फर्क पड़ता है? आनंद तो तब है जब जय-जयकार करते जनसमुदाय को अपनी प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करते इन्हीं पार्थिव आंखों से देखा जाए। देश में जब यह नई रवायत शुरू ही हो गई है तो वह कुछ गिने-चुने स्वनामधन्य लोगों तक ही सीमित क्यों रहे? अभी इसका विस्तार करने का विचार जगन्नाथ बिंद उर्फ खूटी डकैत को सूझा है। हो सकता है कल इस सूची में उनसे कहीं ज्यादा विख्यात नाम जुड़ें। और वे सिर्फ मूतिर् बनवाकर संतोष न करें, लंबी-चौड़ी जमीन घेर कर बाकायदा अपने भव्य मंदिर भी बनवाएं। आखिर नेताओं-अभिनेताओं के लिए ऐसे मंदिरों की बात भी सुनी ही जाती है।
हमारा दिल से लेखक साहब को ध्नयवाद देने का मन कर रहा है। अगर वो लेखक साहब हमें कहीं मिल जाए तो यकिन मानीए । उनको बिना आपने हाथ की कॉफी पिलाए नहीं छड़ेगें।अगर आप जैसे लोग इसी तरह लिखते रहे तो यकीनन हमारे जैसे मीडिया की दुनिया में नए कदम रखेने वालों को जरुर ज्ञान मिलेगा, साथ ही लिखने का आइडिया आता रहेगा। आपके इस लेख ने हमारे अंदर लिखने का जज्बा पैदा कर दिया है। आपका इसके लिए बहुत बहुत ध्नयवाद......
निष्ठा
24 अगस्त को हमने नवभारत टाइम्स में एक लेख पढ़ा......लेख का नाम था अपनी मूर्ती। भई मान गए लेखक साहब को.....कितनी चतुराई से आपनी बात कह डाली और वो भी किसी को बदनाम किए बगैर। अगर आप इस लेख को पढ़ने से चुक गए तो....इस ब्लाग के जरिए पढ़ सकते है उस लेख को।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एक समय खूंटी डकैत के नाम से मशहूर जगन्नाथ बिंद अपने घर के सामने सीमेंट की बनी अपनी छह फुटी मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं। जगन्नाथ पर किसी जमाने में 32 मुकदमे थे, लेकिन एक अर्से से वे डकैती डालना छोड़ चुके हैं। अपनी इस पहल का मकसद वे भावी संततियों को बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश देना बताते हैं। दरअसल, यह उनका बड़प्पन है कि अपनी जमीन पर अपने पैसे से अपनी मूर्ति लगाने से पहले वे इसके लिए कोई वाजिब दलील खोजने की कोशिश कर रहे हैं। लोगबाग तो सार्वजनिक जमीनों पर सरकारी पैसों से अपनी मूर्तियां लगवाते चले जा रहे हैं और ऊपर से इसे जनता पर किया गया एहसान भी बता रहे हैं। साहिर लुधियानवी ने साठ के दशक के अपने एक चर्चित फिल्मी गीत में जगह-जगह गांधी की मूर्तियां लगाने के चलन की ओर इशारा करते हुए 'ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती' लिखा था।
अपने यहां जिंदा लोगों को कोई नहीं पूछता, हर कोई मुर्दों को ही पूजने में लगा रहता है। इधर उत्तर प्रदेश में यह परंपरा तोड़ने की शुरुआत हुई है। पूजना ही है तो जिंदा लोगों को पूजो। जातिगत स्वाभिमान के नाम पर पूजो, सामाजिक न्याय के नाम पर पूजो, दलित मुक्ति के नाम पर पूजो, चाहे जैसे भी पूजो, लेकिन पूजो। इस काम के लिए किसी के महान होने का इंतजार क्यों किया जाना चाहिए? और दिवंगत होने के बाद श्रद्धालुओं द्वारा अपनी मूर्ति बनाए जाने की तो कल्पना भी व्यर्थ है। लोग मरने के बाद आपके दर्शनों को आएं, इसका भला कोई औचित्य बनता है? जब दुनिया से चोला उठ गया तो लोग इसे पूजें चाहे पत्थर मारें, क्या फर्क पड़ता है? आनंद तो तब है जब जय-जयकार करते जनसमुदाय को अपनी प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करते इन्हीं पार्थिव आंखों से देखा जाए। देश में जब यह नई रवायत शुरू ही हो गई है तो वह कुछ गिने-चुने स्वनामधन्य लोगों तक ही सीमित क्यों रहे? अभी इसका विस्तार करने का विचार जगन्नाथ बिंद उर्फ खूटी डकैत को सूझा है। हो सकता है कल इस सूची में उनसे कहीं ज्यादा विख्यात नाम जुड़ें। और वे सिर्फ मूतिर् बनवाकर संतोष न करें, लंबी-चौड़ी जमीन घेर कर बाकायदा अपने भव्य मंदिर भी बनवाएं। आखिर नेताओं-अभिनेताओं के लिए ऐसे मंदिरों की बात भी सुनी ही जाती है।
हमारा दिल से लेखक साहब को ध्नयवाद देने का मन कर रहा है। अगर वो लेखक साहब हमें कहीं मिल जाए तो यकिन मानीए । उनको बिना आपने हाथ की कॉफी पिलाए नहीं छड़ेगें।अगर आप जैसे लोग इसी तरह लिखते रहे तो यकीनन हमारे जैसे मीडिया की दुनिया में नए कदम रखेने वालों को जरुर ज्ञान मिलेगा, साथ ही लिखने का आइडिया आता रहेगा। आपके इस लेख ने हमारे अंदर लिखने का जज्बा पैदा कर दिया है। आपका इसके लिए बहुत बहुत ध्नयवाद......
निष्ठा
Wednesday, June 17, 2009
चेहरा
चेहरा हर आदमी के पूरे अस्तित्व का आईना होता है। अगर चेहरा ना होतो कुछ भी नहीं है। ये चेहरा ही है जो आदमी को राजा से रंक और रंक से राजा बना देता है। चेहरा पूरे अस्तित्व का दर्पण। जो बिन पूछे ही सब कुछ बंया कर देता है। ये चेहरा ही तो है जो सबको अपना बना लेता है............
और ये चेहरा ही तो है जो अपने होते हुए भी बेगाने हो जाते है।
ज़रा सोचीए अगर ये चेहरा ना होतो क्या हो। बिना चेहरे के तो सारी दुनिया बेगानी सी लगने लगेगी। और आदमी बिना चेहरे के कैसा लगेगा। अरे ये चेहरा ही तो है सब।
चेहरा,चेहरा और सिर्फ चेहरा
तंग आ गये है हम इस चेहरे के भंवर से। जहां देखो वहां हर किसी को बस चेहरे की पड़ी है। हर कोई किसी से बात भी करता है तो बस उसके चेहरे के वजह से। अगर चेहरा सुन्दर ना होतो आदमी उससे बात करना तो दुर वो उससे मुड़ के बात भी नहीं करता है। क्यों.......आखिर ऐसा क्यों होता है। अक्सर ये देखने को आता है कि जो बदसुरत होता है उससे लोग ठीक से बात भी करना पसंद नहीं करते है।इतना ही नहीं जब तक लोगों को जरुरत होती है तब तक लोग बस काम निकालने के लिए बेसुरत बात करते है या काम करवाते है और जब सुन्दर चेहरे वाले आ जाते है तो उस बदसुरत को दुध की मख्खी की तरह दुध से निकाल के फेंक देते है।आप कहेंगे की ये सब बकवास है। लेकिन ऐसा ही कुछ हमारे साथ बीता है और वो भी हमारे ऑफिस में।
हमारे ऑफिस में ऐसे बहुत से सीनियर है जो बस काम निकालना जानते है। वो बस उसी से तब तक रिश्ता रखते है जब तक की कोई उनेक मन का उनके शीफ्ट में नहीं आ जाता है। ये वहीं सीनियर है जो उसी सुरत वाले की कभी बुराई करने से नहीं चुकते है।अरे...हम आप को उनका नाम तो नहीं बाता सकते है लेकिन उनके काम को जरुर बता सकते है । वैसे हमें ये पता नहीं है कि हमारी उनेक बारे में धारड़न सही या नहीं लेकिन इतना पता है कि हमने जो देखा है और जो महसूस किया उसके आधार पर हम सही है।
हां तो कहां थे हम...................हां हम आपको अपने उन सीनियर की बात बता रहे थे। हमारे ये जो सीनियर है वो कल तक हर काम के लिए हमें पूछा करते थे लेकिन आज....आज वो किसी और को पुछते है और हमें इस तरह से देखते है जैसे की हमें तो कुछ आता ही नहीं है। हम तो जैसे नकारे है। पता नहीं वो ऐसा क्यों करते है हमें ये नहीं पता है। लेकिन इतना जरुर पता है कि इस बात के पीछे भी चेहरा है और सिर्फ चेहरा।
निष्ठा
और ये चेहरा ही तो है जो अपने होते हुए भी बेगाने हो जाते है।
ज़रा सोचीए अगर ये चेहरा ना होतो क्या हो। बिना चेहरे के तो सारी दुनिया बेगानी सी लगने लगेगी। और आदमी बिना चेहरे के कैसा लगेगा। अरे ये चेहरा ही तो है सब।
चेहरा,चेहरा और सिर्फ चेहरा
तंग आ गये है हम इस चेहरे के भंवर से। जहां देखो वहां हर किसी को बस चेहरे की पड़ी है। हर कोई किसी से बात भी करता है तो बस उसके चेहरे के वजह से। अगर चेहरा सुन्दर ना होतो आदमी उससे बात करना तो दुर वो उससे मुड़ के बात भी नहीं करता है। क्यों.......आखिर ऐसा क्यों होता है। अक्सर ये देखने को आता है कि जो बदसुरत होता है उससे लोग ठीक से बात भी करना पसंद नहीं करते है।इतना ही नहीं जब तक लोगों को जरुरत होती है तब तक लोग बस काम निकालने के लिए बेसुरत बात करते है या काम करवाते है और जब सुन्दर चेहरे वाले आ जाते है तो उस बदसुरत को दुध की मख्खी की तरह दुध से निकाल के फेंक देते है।आप कहेंगे की ये सब बकवास है। लेकिन ऐसा ही कुछ हमारे साथ बीता है और वो भी हमारे ऑफिस में।
हमारे ऑफिस में ऐसे बहुत से सीनियर है जो बस काम निकालना जानते है। वो बस उसी से तब तक रिश्ता रखते है जब तक की कोई उनेक मन का उनके शीफ्ट में नहीं आ जाता है। ये वहीं सीनियर है जो उसी सुरत वाले की कभी बुराई करने से नहीं चुकते है।अरे...हम आप को उनका नाम तो नहीं बाता सकते है लेकिन उनके काम को जरुर बता सकते है । वैसे हमें ये पता नहीं है कि हमारी उनेक बारे में धारड़न सही या नहीं लेकिन इतना पता है कि हमने जो देखा है और जो महसूस किया उसके आधार पर हम सही है।
हां तो कहां थे हम...................हां हम आपको अपने उन सीनियर की बात बता रहे थे। हमारे ये जो सीनियर है वो कल तक हर काम के लिए हमें पूछा करते थे लेकिन आज....आज वो किसी और को पुछते है और हमें इस तरह से देखते है जैसे की हमें तो कुछ आता ही नहीं है। हम तो जैसे नकारे है। पता नहीं वो ऐसा क्यों करते है हमें ये नहीं पता है। लेकिन इतना जरुर पता है कि इस बात के पीछे भी चेहरा है और सिर्फ चेहरा।
निष्ठा
Tuesday, March 24, 2009
टूटा शीशा
कहते है कि टूटे हुए शीशे को नहीं देखा करते है। टूटा शीशा देखेने से किस्तम टूट जाती है या यूं कहे कि किस्मत फूट जाती है। पर उनके किस्मत को क्या कहे जो सड़क किनारे रहते है और हर रोज टूटे शीशे में अपने अस्तिव को देखते और निहारते है। और खुश होकर फिर से अपने रोज के काम में लग जाते है............
रोज कि तरह आज भी हम अपने अपार्टमेंट से ऑफिस के लिए बस पकड़े। बस पकड़ के अट्टा पर उतरे और रोज के तरह चल दिये अपने मंजिल की ओर। हम रोज की तरह ही पैदल...... अपने में मस्त....... कानो में एफएम से गाना सुनते हुए चल रहे थे।पता नहीं कोन सी दुनिया में खोए। तभी अचानक हमारी नज़र सड़क के किनारे लगे उस झोपड़ पर पड़ी।जहां घनी धुप में प्लासटिक को घरनुमां रुप देकर कुछ लोग उसके छांव में अपनी दुनिया में खोये थे। जिस तरह से हम अपनी दुनिया में खोए थे। उनको किसी से कोई भी मतलब नहीं था। बस था तो अपनी दुनिया से मतलब। शायद वो दोपहर के 01.30 बजे नहा के आये थे। उन्हीं में से एक बच्ची पर हमारी नज़र अनायास ही चली गयी। उस बच्ची के हाथ में कुछ चमकती हुई वस्तु थी। जो हमारी नज़र को अपनी ओर खीच रही थी। वो वस्तु शीशा थी........और वो भी टुटा हुआ शीशा.............
उस टूटे हुए शीशे को देख कर एक पल के लिए हम ठहर से गये लगा अरे ये क्या ?
पर दूसरे ही पल उस बात का ध्यान आया....कि टुटे हुए शीशे को नहीं देखना चाहिए।टुटा शीशा देखने से किस्मत टूट या फूट जाती है।
ये बात हर किसी को पता हैं और शायद सब ने ये बात सुनी है।
माना ये बात उस अबोध ना समझ लड़की को नहीं मालूम........ लेकिन क्या ये बात उस बच्ची के मां को भी नहीं पता है। क्या वो मां अपनी बच्ची की किस्मत को नहीं बनना चाहती है ?
क्या वो मां नहीं चाहती कि उसकी बच्ची भी आगे.........आगे जाए........इस जिन्दगी को छोड़ के नयी जिन्दगी में कदम रखे ?
या ये कहे वो सब कुछ जानती है पर चाह के भी कुछ नहीं कर सकती है। क्योंकि वो कहीं ना कहीं इस बात से अवगत है कि हर बच्चा स्लम से उठ के करोड़पतिपति नहीं बन सकता...... UJ
हर बच्चा रुबिना या अज़हर नहीं हो सकता है ........
शायद यहीं होती है हकिकत.........टूटे हुए शीशे को देखने की हकिकत.........
इस घटना ने मेरे आधुनिकता के विचारो को एकदम से झंकझोर दिया। ये एक ऐसी घटना थी जिसने हमें हकीक़त से रुबरु कराया। शायद सब को हकिकत से रुबरु कराया हमारा ये टूटा शीशा।
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