Tuesday, August 25, 2009

ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की

नवभारत टाईम्स का ध्नयवाद

24 अगस्त को हमने नवभारत टाइम्स में एक लेख पढ़ा......लेख का नाम था अपनी मूर्ती। भई मान गए लेखक साहब को.....कितनी चतुराई से आपनी बात कह डाली और वो भी किसी को बदनाम किए बगैर। अगर आप इस लेख को पढ़ने से चुक गए तो....इस ब्लाग के जरिए पढ़ सकते है उस लेख को।

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एक समय खूंटी डकैत के नाम से मशहूर जगन्नाथ बिंद अपने घर के सामने सीमेंट की बनी अपनी छह फुटी मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं। जगन्नाथ पर किसी जमाने में 32 मुकदमे थे, लेकिन एक अर्से से वे डकैती डालना छोड़ चुके हैं। अपनी इस पहल का मकसद वे भावी संततियों को बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश देना बताते हैं। दरअसल, यह उनका बड़प्पन है कि अपनी जमीन पर अपने पैसे से अपनी मूर्ति लगाने से पहले वे इसके लिए कोई वाजिब दलील खोजने की कोशिश कर रहे हैं। लोगबाग तो सार्वजनिक जमीनों पर सरकारी पैसों से अपनी मूर्तियां लगवाते चले जा रहे हैं और ऊपर से इसे जनता पर किया गया एहसान भी बता रहे हैं। साहिर लुधियानवी ने साठ के दशक के अपने एक चर्चित फिल्मी गीत में जगह-जगह गांधी की मूर्तियां लगाने के चलन की ओर इशारा करते हुए 'ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती' लिखा था।
अपने यहां जिंदा लोगों को कोई नहीं पूछता, हर कोई मुर्दों को ही पूजने में लगा रहता है। इधर उत्तर प्रदेश में यह परंपरा तोड़ने की शुरुआत हुई है। पूजना ही है तो जिंदा लोगों को पूजो। जातिगत स्वाभिमान के नाम पर पूजो, सामाजिक न्याय के नाम पर पूजो, दलित मुक्ति के नाम पर पूजो, चाहे जैसे भी पूजो, लेकिन पूजो। इस काम के लिए किसी के महान होने का इंतजार क्यों किया जाना चाहिए? और दिवंगत होने के बाद श्रद्धालुओं द्वारा अपनी मूर्ति बनाए जाने की तो कल्पना भी व्यर्थ है। लोग मरने के बाद आपके दर्शनों को आएं, इसका भला कोई औचित्य बनता है? जब दुनिया से चोला उठ गया तो लोग इसे पूजें चाहे पत्थर मारें, क्या फर्क पड़ता है? आनंद तो तब है जब जय-जयकार करते जनसमुदाय को अपनी प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करते इन्हीं पार्थिव आंखों से देखा जाए। देश में जब यह नई रवायत शुरू ही हो गई है तो वह कुछ गिने-चुने स्वनामधन्य लोगों तक ही सीमित क्यों रहे? अभी इसका विस्तार करने का विचार जगन्नाथ बिंद उर्फ खूटी डकैत को सूझा है। हो सकता है कल इस सूची में उनसे कहीं ज्यादा विख्यात नाम जुड़ें। और वे सिर्फ मूतिर् बनवाकर संतोष न करें, लंबी-चौड़ी जमीन घेर कर बाकायदा अपने भव्य मंदिर भी बनवाएं। आखिर नेताओं-अभिनेताओं के लिए ऐसे मंदिरों की बात भी सुनी ही जाती है।

हमारा दिल से लेखक साहब को ध्नयवाद देने का मन कर रहा है। अगर वो लेखक साहब हमें कहीं मिल जाए तो यकिन मानीए । उनको बिना आपने हाथ की कॉफी पिलाए नहीं छड़ेगें।अगर आप जैसे लोग इसी तरह लिखते रहे तो यकीनन हमारे जैसे मीडिया की दुनिया में नए कदम रखेने वालों को जरुर ज्ञान मिलेगा, साथ ही लिखने का आइडिया आता रहेगा। आपके इस लेख ने हमारे अंदर लिखने का जज्बा पैदा कर दिया है। आपका इसके लिए बहुत बहुत ध्नयवाद......
निष्ठा

1 comment:

  1. maaf kijiyega nishtha ji, aapki mail id na hone ki wajah se yaha likhna pad raha hai,
    bhupen ke bare me aur janna ho to unke blog par dekhiye..add hai
    www.indiancoffeehouse.blogspot.com
    waise link usi post me bhi diya hua hai, isi par unki email id bhi hai, unhe aap email bhi kar sakti hain.....
    dhanywaad...

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